नागराज पोपटराव मंज़ूले की ‘झुंड’ एक सिनेमा से बढ़कर वो टेक्स्ट बुक है जिसे हम सभी को कमसकम एक बार तो ज़रूर पढ़ना चाहिए। झुंड जिसे फ़िल्म में बार बार टीम का सम्बोधन दिया गया है, जो थ्योरी में तो सही लगता है पर प्रैक्टिकली उसे कह पाना हम सब के लिए बेहद मुश्किल है। यह मुश्किलात फ़िल्म में कई सारे द्रश्यों में दिखते है। कभी सिस्टम की तरफ़ से तो कभी उन पढ़े लिखे सभ्य समाज की ओर से जिसकी हद से बाहर भी एक दुनिया है जिसे वो कचरा समझते हैं। यह फ़िल्म अपनी पूरी अवधि के दौरान तकरीबन तक़रीबन हर एक द्रश्य में हमें एक सबक दे रही होती है। यह सबक वो है जो हम अपने आसपास रोज़ाना देखते हैं पर आगे बढ़ जाते हैं। यह फ़िल्म हमें वो दिखाती और बार बार दिखाती है और हमें मजबूर करती है कि हम उसपर सोचें।
फ़िल्म की शुरुआत एक झोपड़पट्टी के घर से होती है जहाँ से फ़िल्म का एक किरदार और उसका परिवेश हमें दिखता है। उसी कड़ी में हमें उस पूरे इलाक़े के कुछ और किरदार अपने अपने परिवेश और स्वभाव के साथ दिखते हैं और हम उस भारत को देखते हैं जिसे हम सबने भुला दिया है। ये भारत सिर्फ़ इलेक्शन के समय नेताओं को दिखता है उसके बाद ये भारत कहीं गुम हो जाता है। इस भारत को ना सरकार जानती है ना ही सरकार के प्रतिनिधि। यह वो लोग हैं जिनके पास ख़ुद के जीवित होने का भी प्रमाण नहीं है।
यह फ़िल्म बार बार हमारे सिस्टम और उस भारत से सवाल करती है जिसे लगता है भारत सिर्फ़ उनकी हदों और दीवारों के भीतर है जहाँ वे रहते हैं। यह फ़िल्म हमें वो भारत दिखाने और बताने की कोशिश करती है जिसे हम सबने महात्मा गांधी के तीन बंदरों की तरह ‘अनसुना- अनदेखा- अनकहा’ समझ रखा है।
इस फ़िल्म की शुरुआत में सभी किरदारों के सेटप के बाद प्रोफेसर विजय बोराड़े की एंट्री होती है और वे किस कारण और किस प्रभाव से फुटबॉल लेकर इस झोपड़पट्टी में आते हैं यह कारण बहुत स्पष्ट नहीं हो पाता। बाद के द्रश्यों में यह समझ आता है कि अब वे अपनी नौकरी से रिटायर होने वाले हैं। एक दिन वह अपने ही कॉलेज के बग़ल की झोपड़पट्टी के बीचों बीच स्थित सार्वजनिक मैदान के पास से गुज़र रहे होते हैं। लेकिन अचानक आयी बारिश से प्रोफेसर विजय बोराड़े ख़ुद को बचाते हुए उस मैदान के पास एक जगह देखकर बारिश से बचते हैं, तभी उनकी नज़र उस मैदान में एक छोटे से ड्रम को फुटबॉल बना खेलते उन सभी बच्चों पर पड़ती है जिन्हें शुरू के द्रश्यों में हमने लड़ते झगड़ते, चोरी और नशा करते देखा था पर यहाँ वे सब एक छोटे ड्रम के साथ फुटबॉल की तरह ख़ूब खेलते हैं। उनके इस सहज बर्ताव और उत्साह को देखकर प्रो. विजय को लगता है कि अगर इन बच्चों को सही से प्रशिक्षण दिया जाए तो ये बच्चे इस मलिन झोपड़पट्टी से निकलकर समाज के साथ बराबरी से खड़े हो सकते हैं और देश का प्रतिनिधित्व तक कर सकते हैं।
‘झुंड’ इसी दिशा के साथ आगे बढ़ती और प्रोफेसर विजय बोराड़े के सहारे उन बच्चों के बदलाव और उनकी क्षमता को उजागर करती है जो कि इसी कथा के शुरुआत में मारपीट, लूट, चोरी और नशे का सामान बेच कर धन कमाते हैं और नशा करते हैं जिनके लिए चाकू छूरी चला देना सामान्य सी घटना है। वे बच्चे जो एक समय तक आपको ग़लत कामों में संलग्न दिख रहे थे अचानक से प्रोफेसर विजय बोराड़े के प्रयास और उनकी ज़िद से बदल रहे थे। प्रोफेसर विजय बोराड़े जिन्होंने उनके अंदर की क्षमता को पहचान कर शुरू में उन्हें कई बार मैच को खेलने के लिए 500 रुपए का प्रस्ताव दिया, जिसे उन बच्चों ने एक आमदनी और मज़े के लिए स्वीकार तो कर लिया पर बाद में यही उनके जीवन की एक दिनचर्या जैसा हो गया। जिसके लिए वे सभी बच्चे अपने सभी काम छोड़कर उस एक ३० मिनट के मैच के लिए इकट्ठा होने लगे। शुरू में तो उन्होने इसे 500 रुपए के लिए स्वीकार किया था पर बाद में प्रोफेसर विजय बोराड़े की सूझ-बुझ से वे उन बच्चों के अंदर एक अहसास पैदा करने में सफल हुए जो बाद में उन बच्चों के अंदर आए बड़े बदलाव का बीज बना।
यह पूरी फ़िल्म अपनी 178 मिनट की अवधि में हर द्रश्य में उन झोपड़पट्टी के बच्चों के पहले द्रश्य से लेकर आख़िरी द्रश्य तक उनमें बदल रहे व्यवहार और उनकी सजगता उनकी परीक्षा को दर्शाता है। किस तरह से वे बच्चे जो 500 रुपए लेकर खेलने आगे आए थे। वे सब अब बिना पैसे लेकर खेलने को तैयार थे बस उन्हें वो फुटबॉल चाहिए थी। वे बच्चे चाहते तो फुटबॉल चोरी भी कर सकते थे पर उन्होंने नहीं किया। वे प्रोफेसर विजय बोराड़े का इंतज़ार करते रहे, वे उनसे मिन्नते करते रहे और अंत में उनके घर तक जा पहुँचे। वहाँ पहले तो उन्होंने उनसे ना आने का कारण पूछा और जब प्रोफेसर विजय बोराड़े ने पैसे ना होने की बात करी तो एक समय बाद वे बिना पैसे भी खेलने को तैयार हो गए। प्रोफेसर विजय बोराड़े ने यहाँ भी उनकी परीक्षा ली और जब वे आश्वस्त हुए तभी वे उनके मैदान में वापस गए और उसके बाद तो उन बच्चों ने प्रोफेसर विजय बोराड़े को अपना मान लिया।
फ़िल्म देखते समय शुरुआत में बार बार मन ये प्रश्न करता रहा कि आख़िर ये बच्चे प्रोफेसर विजय बोराड़े के साथ किस कारण आ जाते हैं? क्यों उनकी बात सुनते हैं?
इस प्रश्न का उत्तर मुझे फ़िल्म के मध्यांतर से कुछ देर पहले के एक द्रश्य में मिला। जब झोपड़पट्टी के वे बच्चे कॉलेज के ट्रेंड और समझदार स्टूडेंट्स से फुटबॉल का मैच जीतकर प्रोफेसर विजय बोराड़े के घर पर आते हैं तब वे अपने जीवन और अपनी ख़्वाहिशों के बारे में बताना शुरू करते हैं। उन बच्चों की बात सुनकर मन कचोटता है, आँखे गीली होती हैं। इसी द्रश्य के शुरू में फ़िल्म का एक किरदार ‘बाबू’ कहता है कि पहली बार ऐसा हुआ है जब किसी ने उनसे उनके बारे में पूछा है। किसी ने उनके साथ बैठकर इस तरह से बात करी है। यह सब कहते हुए उसका गला भी भर आता है और वह अपनी भविष्य के सवाल पर कहता है कि उसे लगता था एक मर्डर करना है उसके बाद जब वह जेल जाएगा तब अपने इलाक़े में उसका नाम हो जाएगा। यह बात जब वो कह रहा है तो उसके चेहरे के भाव हमसे सवाल करते हैं कि क्या सच में हमने जाने अनजाने इस तरह की एक दुनिया को जन्म दे दिया है जहाँ एक 15- 16 साल का लड़का मर्डर जैसे गम्भीर अपराध को सामान्य तरह से देखकर अपने भविष्य को संजोने का सोच सकता है। आख़िर क्यों हम अपने आसपास के इन लोगों से बात नहीं कर पाते, आख़िर क्यों उन्हें हम अपनी दुनिया से बाहर का समझते हैं?
यह फ़िल्म देखते हुए मेरी आँखें कई बार नम हुई। यह फ़िल्म ज्यों ज्यों आगे बढ़ती गयी इसका विस्तार सिर्फ़ एक इलाक़े तक सीमित नहीं रहा। यह उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक विशाल भारत की झोपड़पट्टियों में रह रहे लाखों युवाओं तक पहुँची और उनकी उन ज़रूरतों तक हमें ले गयीं जिसे हम बेहद मामूली समझते हैं पर वे मामूली ज़रूरतें उनके लिए कितनी बड़ी हैं ये हम इन द्रश्यों से ही जान पाते हैं।
उदाहरण के लिए, फ़िल्म में निभाया एक लड़की का किरदार। जिसे रिंकू राजगुरु ने निभाया। जिसे प्रोफेसर विजय बोराड़े द्वारा ‘इंटरनेशनल स्लम सॉकर चैंपियनशिप’ के लिए टीम में चुना गया है। इस चैंपियनशिप के लिए पासपोर्ट चाहिए। अब यहाँ से सिस्टम की पोल और हमारे विकास की दिशा दिखती है जब एक ग्रामीण अनपढ़ पिता अपनी बेटी संग पासपोर्ट बनवाने के लिए एक जगह से दूसरी जगह भटक रहें होते हैं तो सिस्टम की भाषा बोलता हुआ एक व्यक्ति कहता है, यहां आदमी को अपनी पहचान के लिए जीवित होते हुए भी कागज चाहिए होता है और मरने के बाद भी। व्यक्ति की पहचान कागज से ही होती है। सामने खड़े जिंदा आदमी की अपनी कोई पहचान नहीं है। अब इस पहचान के प्रमाण के लिए किस तरह वो एक दरवाज़े से दूसरे दरवाज़े भटकता है, और अंत में एक अहसान के साथ उसे उसकी बेटी की पहचान का प्रमाण मिलता है। यह वो भारत है जिसकी आबादी भारत की कुल आबादी से 70 फ़ीसदी तक की होगी ऐसा मेरा अनुमान है। हम अब यहाँ महानगरों में बैठकर कितनी भी दलित उत्थान की बात कर लें पर उन लोगों के दर्द और समस्या का भान तनिक भी नहीं पा सकेंगे जो हमारे इर्द गिर्द बनी ऊँची दीवारों और टावरों के पीछे रहती है।
हम अपनी दीवारों को कितना भी ऊँचा कर लें पर वो आसमान उनसे कभी नहीं छीन पाएँगे जो उनका भी उतना ही है जितना हमारा। प्रोफेसर विजय बोराड़े पूरी फ़िल्म में उन बच्चों और दुनिया भर के उन सभी पिछड़े और पीछे रह गए युवाओं की बात करते हैं जिन्हें हमने ख़ुद की दुनिया से बाहर कर दिया है। हम सब उन टावरों में ठंडे वातानुकूलित कमरों में बैठकर कितनी भी बात कर लें, उसका कोई असर नहीं होने वाला। हम सबको अपने हिस्से का विजय बोराड़े आगे करना होगा जो हम सबके बीच की हर दीवार को तोड़कर सबको समान अधिकार समान व्यवहार का हक़ दिला सके। जो उन्हें यह अहसास दिला सके कि यदि वे गिरेंगे तो उन्हें थामने के लिए कोई है। प्रेम और व्यवहार से तो शत्रु भी मित्र बन जाते हैं फिर ये सब लोग तो हमारे आपके जीवन के साथी ही हैं।
इस फिल्म के माध्यम से नागराज मंजुले बार बार लगातार सामाजिक-राजनीतिक टिप्पणियां करते हैं। उनकी पक्षधरता साफ नजर आती है और वे कहीं भी इससे बचते नहीं बल्कि और मुखर होकर इसे कहते हैं। फिल्म में जय भीम का नारा गूंजता है।
जय भीम के अलावा भी फ़िल्म में अनगिनत संवाद जो इतनी सादगी से कहे गए हैं कि उन्हें उनके अर्थ तक समझ पाना कमसकम एक बार में तो सम्भव नहीं। सिनेमा हॉल में यह सुविधा होती तो शायद मैं यह फ़िल्म रिपीट मोड में डालकर कई बार कई द्रश्य २-३ बार देखता और उसके मर्म को और अच्छे से समझता। ऐसा मैं इस फ़िल्म को अगले १-२ दिन में दोबारा देखकर करूँगा ही। अभी कुछ एक लाइनें जो याद रह गई वो….
“अपुन की बस्ती गटर में है, पर तुम्हारे दिल में गंध है।”
“हमको दुनिया ने रोज़ देखा है, फिर भी हम अनदेखा झुंड हैं।”
“अंधी बहरी सी गलियों में तू क्यों गुमनाम है, इनके बाहर जो दुनिया तेरा आयाम है”
“ज़माने की नज़र में भले तू भंगार है, तेरे भी सीने में कहीं तो अंगार है”
ये कुछ लाइनें जो फ़िल्म में गीत के साथ आती हैं, पर बहुत कुछ कहती हैं। साथ ही फ़िल्म में हो रहे हर किरदार के बदलाव की कथा भी सुनाती है फिर वो अंकुश में आए व्यावहारिक बदलाव या उसके प्रेम में ‘भावना’ का उसके प्रति लगाव। फ़िल्म के शुरुआती दौर में जो लड़का सिर्फ़ किसी के घूर लेने पर उसका सर फोड़ देने को आमादा था। वो कैसे फ़िल्म के अंत में किसी के पैरों में गिरकर नाक रगड़ने को भी तैयार हो जाता है। अंकुश का किरदार हम सबके लिए एक सबक़ की तरह है, अंकुश के पासपोर्ट का वेरिफ़ाई ना होना हमें तकलीफ़ देता है। हम मन ही मन चाहते हैं कि अंकुश अब ग़ुस्से में भी कोई ग़लती ना करे। हम फ़िल्म देखते देखते हर एक पल मनाते हैं कि अंकुश टीम के साथ खेलने जाए। एयरपोर्ट पर जब अंकुश ‘चेक-इन काउंटर’ पर २-३ बार वापस किया जाता है और आख़िर में जब वो ब्लेड फेंकने के बाद फिर से लौटता है तो उसकी आँखें और आँसू हमें भी उसके साथ बहा ले जाते हैं।
अंकुश जैसे लड़के, और उस झोपड़पट्टी के हर एक बच्चे को हम उस 178 मिनट की फ़िल्म में द्रश्य दर द्रश्य बदलते हुए देखते हैं, उन्हें उस भारत का हिस्सा बनते हुए देखते हैं जिसपर हम सब को नाज़ है, पर अपने अहं में हमने उन्हें दीवार से पाट रखा है। क्या इतना सब बदलाव देखने और समझने के लिए इससे कम अवधि मुमकिन थी? मुझे तो निजी तौर पर फ़िल्म की यह अवधि जायज़ लगी।
‘झुंड’ हिंदी सिनेमा में एक चैप्टर की तरह आया है, जिसे आने वाले कई वर्षों बाद भी देखकर समझा और पढ़ा जाएगा। यह फ़िल्म अपने मूल उद्देश्य में सौ फ़ीसदी सफल होती है।
नागराज मंजुले की यह पहली हिंदी फिल्म है। इसके पहले की उनकी सभी मराठी फ़िल्में भी बेहद संवेदनशील और मार्मिक रही हैं। जिनमें सैराट तो इस क़दर चर्चित और लोकप्रिय रही कि इस फ़िल्म ने गैर-मराठी भाषियों को भी लुभाया और मराठी सिनेमा की अब तक की सबसे बड़ी फ़िल्म का इतिहास भी रचा।
यह फिल्म हमें अंत अंत तक यह भी बताती चलती है कि एक समाज के रूप में हम, हाशिये पर रह रहे लोगों की तरफ पलटकर भी कभी नहीं देखते। उनके जीवन- मरण को हमने कभी तरजीह नहीं दी। हमने उनके लिए किसी भी मौक़े को बचाकर नहीं रखा बल्कि उन्हें गंदा और असंवेदनशील कहकर हमेशा वंचित ही किया है। जिसमें हमारी सरकार, हमारी व्यवस्था और समाज सभी सहभागी बन ज़िम्मेदार हैं और हम सभी उनके प्रति संवेदनहीन ही हैं।
यह फ़िल्म आज की एक बेहद ज़रूरी फ़िल्म है, और इसे हमें सपरिवार मिलकर देखना चाहिए और हो सके तो फ़िल्म देखने के बाद अपने आसपास की किसी झोपड़पट्टी में जाकर देखना चाहिए कि जो हमारी ऊँची दीवारों के पीछे लोग रहते हैं उनकी दुनिया कैसी है, उनका भारत कैसा है।
अंत में मुझे बहुत समय पहले पढ़ा एक अंश याद आ रहा है।
कृति का नाम है “महादेश की गाथा” लेखक – “कृष्ण कल्पित”
भारत एक खोया हुआ देश है
सबको अपना अपना भारत खोजना पड़ता है
मैं भी इस भू-भाग पर भटकता हुआ
अपना भारत खोज रहा हूँ।