फ़िल्म समीक्षा

बात ‘झुंड’ की

नागराज पोपटराव मंज़ूले की ‘झुंड’ एक सिनेमा से बढ़कर वो टेक्स्ट बुक है जिसे हम सभी को कमसकम एक बार तो ज़रूर पढ़ना चाहिए। झुंड जिसे फ़िल्म में बार बार टीम का सम्बोधन दिया गया है, जो थ्योरी में तो सही लगता है पर प्रैक्टिकली उसे कह पाना हम सब के लिए बेहद मुश्किल है। यह …

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बात “द कश्मीर फ़ाइल्ज़” की

एक के लिए ग्लास आधा ख़ाली है, और दूसरे के लिए आधा भरा। जो जहां से देखे वैसा समझे। सच सिर्फ़ एक है कि ग्लास में पानी है।  ‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ पिछले ४ दिनों से हाउसफुल चल रही है। ६०० स्क्रीन से बढ़ाकर २००० स्क्रीन कर दी गयी। पिछले ४ दिनों में ४० करोड़ से …

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बात ‘पैरासाइट’ की

पैरासाइट एक ब्लैक कॉमेडी थ्रिलर है, जिसे निर्देशित किया है बोंग जून हो ने। यह एक दक्षिण कोरियाई फ़िल्म है और इस वर्ष के एकेडमी पुरस्कार में चार पुरस्कार जीते हैं जिसमें बेस्ट पिक्चर, बेस्ट डायरेक्टर, बेस्ट ऑरिजनल स्क्रीनप्ले और बेस्ट इंटरनेशनल फ़ीचर फ़िल्म शामिल है, और साथ ही यह पहली नॉन इंग्लिश लैंग्वेज फ़िल्म …

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बात ‘शिकारा’ की

This film is a true love letter of Kashmir by Vidhu Vinod Chopra Films  शिकारा के सभी पोस्टर और पहले आधिकारिक ट्रेलर में जो दिखाया गया और जिस तरह की बात हुई वो फ़िल्म से मेल नहीं खाती। यह फ़िल्म एक टाइमलेस लवस्टोरी ही है जो कि वर्स्ट टाइम में जन्म लेती है ना कि …

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बात ‘कांचली’ की

सड़ता पानी पड़तल… नीर बहे सो निर्मल… अपनी-अपनी नजर और अपना-अपना नजरिया…  विजयदान देथा “बिज्जी” की कहानी “केंचुली” के शुरुआती अंश हैं ये, और इसी पर बनी है आज रिलीज़ हो रही फ़िल्म कांचली जिसे निर्देशित किया है देदिप्य जोशी ने। ये कहानी हम सबमें से ज़्यादातर ने पहले से पढ़ रखी होगी शायद, बिज्जी …

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बात “छपाक” की

छपाक का विषय बेहद गम्भीर और ज़रूरी है, जिस कारण से इसे ज़रूर देखना चाहिए और जिन लोगों ने भी इस फ़िल्म के विरोध में बॉयकॉट किया उन्हें भी, बाक़ी जिन्हें देखनी थी उन्होंने तो देख ली और जो देखना चाहते हैं वो भी इस शुक्रवार से पहले देख जाएँगे बाक़ी इसका हॉट स्टार पर …

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बात ‘महारानी’ की (वेब- सीरीज़/ फ़र्स्ट सीज़न)

“अपवाद अगर लम्बे समय तक टिक जाए तो नियम बन जाता है।”“Bihar is not a state but a state of mind.”…………………………………………………… सत्ता का स्वाद और राजनीति के समीकरण को बनाए रखने की जद्दोजहद को पूरी ईमानदारी से रखने और कल्पना को सजीव बनाने की भरसक कोशिश में बहुत हद तक सफल और असफल होती है …

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बात ‘the social dilemma’ की

बचपन में हम sci-fi फ़िल्में देखते थे जिनमें बड़ी बड़ी मशीने, कम्प्यूटर जिनसे रोबोट तैयार किए जाते थे और वही रोबोट मशीनों द्वारा ऑपरेट होते थे, तब यह सब देखकर आश्चर्य होता था कि किस तरह से यह  तकनीक काम करती होगी कि मशीन द्वारा किसी रोबोट से अपनी मर्ज़ी के काम करवाए जाएँ फिर वो विनाश हो या विकास. फ़िल्मों में यह सब आज भी रोमांच देता है और बढ़ती तकनीक और कल्पना शक्ति ने इसे और समृद्ध ही किया है पर क्या यह सब असल में सम्भव है वो भी इंसानो पर…?? क्या यह तकनीक अब और आगे बढ़कर रोबोट के अलावा इंसानों को भी नियंत्रित कर सकती है..? शायद हाँ… पर इंसानों को नियंत्रित करने और रोबोट को नियंत्रित करने में सबसे आसान क्या होगा…? शायद इंसान ही क्योंकि वह बेहद आसानी से हर ऐक्शन का रीऐक्शन दे देता है जबकि रोबोट बिना कोडिंग प्रोग्रामिंग के एक स्टेप आगे नहीं जाएगा, लेकिन एक इंसान अपने मनोभाव और आभासी प्रभाव (वर्चूअल रीऐलिटी) को समझ नहीं पाता और ट्रैप में फँसता चला जाता है,  और यह प्रभाव कब आदत बनकर हमारे मस्तिष्क और हमारे कलापों को अव्यवस्थित करना शुरू कर देता है हम जान भी नहीं पाते और कई बार अलग अलग समय/ परिस्थिति में हम अवसाद से ग्रसित होकर कई गलत क्रत्य में भी संलिप्त हो जाते हैं. इन्ही सारी बातों को कहते और बताते हुए, पिछले हफ़्ते नेटफलिक्स पर आयी है डॉक्युमेंटरी फ़िल्म “the social dilemma” जो विस्तृत रूप से ऐसी ही विसंगतियों पर  स्पष्ट और  तथ्यपरक ज़रूरी बात करती है,यह डॉक्युमेंटरी …

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