बात ‘कांचली’ की

सड़ता पानी पड़तल… नीर बहे सो निर्मल… अपनी-अपनी नजर और अपना-अपना नजरिया… 

विजयदान देथा “बिज्जी” की कहानी “केंचुली” के शुरुआती अंश हैं ये, और इसी पर बनी है आज रिलीज़ हो रही फ़िल्म कांचली जिसे निर्देशित किया है देदिप्य जोशी ने।

ये कहानी हम सबमें से ज़्यादातर ने पहले से पढ़ रखी होगी शायद, बिज्जी की कहानियों पर पहले भी फ़िल्म और नाटक बनते रहे हैं. मणि कौल, श्याम बेनेगल, प्रकाश झा और बाद में अमोल पालेकर ने भी उनकी कहानियों पर फ़िल्म, नाटक बनाए हैं। उदय प्रकाश सर ने तो उनपर डॉक्युमेंट्री और उन्ही की कहानियों पर टीवी सिरीज़ भी बनायी थी, अगर मुझे सही से याद है तो वो दूरदर्शन के लिए थी ख़ैर अब एक अरसे बाद  उन्ही की कथा “केंचुली” पर आधारित “कांचली” रिलीज़ हो रही है।

कांचली देखते समय वो पूरी कहानी जो काफ़ी समय पहले पढ़ी थी वो फिर से दोहरा गयी, “भोजा” जो एक बेहद रोचक किरदार पढ़ने में था उतना ही असरदार स्क्रीन पर भी, जिसे संजय मिश्रा ने बखूबी उतारा है। दूसरे अन्य किरदार “ठाकुर” जो फ़िल्म में अन्नदाता के नाम से ललित परिमू, नरेशपाल सिंह “किसनु” के किरदार में अपने चरित्र के साथ पूरा न्याय करते हैं। 

और अब बात कांचली की कजरी और बिज्जी की लाछी की, कजरी को निभाया है शिखा मल्होत्रा ने, जिनकी ये पहली फ़िल्म है और उन्होंने लाछी को पर्दे पर कजरी के रूप में जीवंत कर दिया है, बहुत बढ़िया काम है उनका।

फ़िल्म का गीत, संगीत बढ़िया है…

फ़िल्म के कुछ हिस्से तो बेहद खूबसूरत डिज़ाइन किए हुए हैं, विज़ूअल ट्रीटमेंट अद्भुत है कुछ ख़ास जगहों पर।

कुल मिलाकर निराश नहीं करती कांचली, फ़िल्म शुरुआती समय में धीमी ज़रूर है पर वो किरदार के सेटल होने के लिए ज़रूरी होगा. ऐसा मुझे लगता है जबकि फ़िल्म जब ख़त्म होती है तो मेरा मन कजरी के किरदार के साथ कुछ देर और रुकना चाहता था, लेकिन … ऐसा होता नहीं क्योंकि “वो तो अपने पेट में आस लिये हुए ब्रह्माण्ड में निर्वसना घूमने निकल पड़ी, जिसका न कोई मुकाम है और न कहीं कोई विश्राम।

कांचली फ़िल्म इसलिए भी देखनी चाहिए, क्योंकि अब वो दौर फिर से लौटने की राह में है जिसमें पन्नों की दुनिया में जीते किरदार पर्दे पर जीवंत हों, और कांचली अपने उस प्रयास पूर्णतः सफल होती है।