एक के लिए ग्लास आधा ख़ाली है, और दूसरे के लिए आधा भरा। जो जहां से देखे वैसा समझे। सच सिर्फ़ एक है कि ग्लास में पानी है।
‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ पिछले ४ दिनों से हाउसफुल चल रही है। ६०० स्क्रीन से बढ़ाकर २००० स्क्रीन कर दी गयी। पिछले ४ दिनों में ४० करोड़ से अधिक का कारोबार हो चुका है। गिनती जारी है जो अभी और बढ़ने के संकेत दे रही है। कोविड के डर से ख़ाली पड़े सिनेमाघर में फिर से रौनक़ लौटी है। ‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ का एक सच यह भी है कि वह उस दास्तान को ज्यों का त्यों कह रही है जो अब तक सिर्फ़ किताबों में या सरकारी कागजों में दर्ज था। दास्तान के अलावा और भी कुछ बातें हैं जिन्हें बिल्कुल वैसे ही लेना चाहिए जैसे कश्मीर पर बनी अन्य फ़िल्मों ‘हैदर’ ‘मिशन कश्मीर’ ‘शिकारा’ में कहा गया। जिनमें एक कश्मीरी लड़का बहक जाता है और बंदूक़ उठा लेता है, जिसे पूरी फ़िल्म के कथानक में नायक साबित किया जाता है। जबकि ‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ का कश्मीरी लड़का बहका नहीं है बल्कि उसे आज की युवा पीढ़ी की तरह कुछ पता ही नहीं है और जब उसके सामने एक घटनाक्रम में सारे तथ्य आते हैं तो वो लड़का अपनी समझ से अपना मन और भविष्य चुनता है।
‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ कई सारी घटनाओं को हुबहू कहती है और फ़िल्म अपने समापन से पहले कृष्णा पंडित के हवाले से १४ मिनट का एक मोनोलॉग हमें सुनाती है। जो हमें कश्मीर के इतिहास से रूबरू कराता है।
‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ के लेखक- निर्देशक ‘विवेक रंजन अग्निहोत्री’ की पूरी फ़िल्म इन आख़िरी २० मिनट पर आधारित है। जिसमें वो अपनी बात रखकर एक बेहद भयावह द्रश्य के साथ इस फ़िल्म को देख रहे दर्शकों को अकेला छोड़ देते हैं।
यह एक डिस्टर्बिंग फ़िल्म है। इसे सिनेमा कहना सही नहीं होगा। यह एक डॉक्यू ड्रामा है जो बहुत हद तक सही और कुछ कुछ फ़िक्शनल है। इस फ़िल्म का हासिल यही है कि यह सोच समझ कर समय के साथ कही गयी और एक ध्येय के साथ बनी फ़िल्म है। यह फ़िल्म किसी भी तरह से भारतीय सेना या भारत को धूमिल नहीं करती बल्कि उस विचार के विरुद्ध एक बड़ी दीवार खड़ी करती है जो भारत को कश्मीर से अलग देखना चाहते हैं। अलग सीमा की दृष्टि से नहीं बल्कि संविधान और अन्य भौगोलिक समीकरण से।
कश्मीर की अपनी एक भयावह त्रासदी है जो भारत की आज़ादी के वर्षों पहले से चली आ रही है। कश्मीर को भारत से अलग करने की शक्ति के विरुद्द है “द कश्मीर फ़ाइल्ज”। “द कश्मीर फ़ाइल्ज़” का अपना एक राजनैतिक कारण है निर्माण को लेकर पर उसके सवाल को हम अलग नहीं कर सकते। सवाल उन परिवारों के जिन्हें अपने ही देश में बेघर होना पड़ा और बीते कई दशकों में कई सरकारें आई और गयीं पर उनकी सुध किसी ने नहीं ली।
मेरी अपनी निजी व्यक्तिगत राय में यह फ़िल्म उस एक विषय को इतिहास के एक संदर्भ के साथ हमारे सामने रख देती है और फिर हम इसपर चल रही बहस के आधार पर इस विषय पर टेक्स्ट और बुक तलाशने लगते हैं। इस फ़िल्म के बाद मेरे कई दोस्तों ने कश्मीर पर ढेरों किताबें मँगवाई और उसे पढ़ने के बाद वे असहज थे कि इतनी बड़ी दुर्घटना से हम सब अनजान थे। मुझे लगता है यदि एक फ़िल्म इस तरह से आपको एक घटना के बाद और पहले की स्थिति को समझने की जिज्ञासा को जन्म दे सकती है तो वह सफल कही जानी चाहिए।
“द कश्मीर फ़ाइल्ज़” तो व्यावसायिक स्तर पर भी सफल है और एक दिशा और शोध आधार पर भी। इसे एक फ़िल्म से अधिक दस्तावेज़ीकरण कहा जा सकता है। जिसपर विमर्श पहले दिन से ही शुरू हुआ है और ऐसा लगता है कि यह एक समय तक मस्तिष्क में स्थापित रहेगा।
यह फ़िल्म तकनीकी तौर पर बेहद कमज़ोर फ़िल्म कही जाएगी पर अभिनय की कसौटी पर ‘अनुपम खेर’, ‘पल्लवी जोशी’, ‘मिथुन दा’, ‘दर्शन कुमार’ परिपक्व बेहद प्रभावशाली लगे हैं।